“
अब तक मैं जान चुका था कि सोचने का अवसर मिलने पर किसी भी कार्य में लोग काल्पनिक रुकावटें खड़ी कर देते हैं। दूर के, पराये लोग तो यह करते ही हैं, किन्तु अपने भी यही करते हैं।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
इन वेदों के छह अंग हैं। उनको भी छह स्वतन्त्र विद्याएँ माना गया है। पहले अंग को ‘शिक्षा’ कहते हैं। ‘शिक्षा’ अर्थात् वेदों के शब्दों के निर्दोष, योग्य और कर्ण-मधुर उच्चारण का शास्त्र। वेदों की वास्तविक सामर्थ्य उसके अचूक और स्पष्ट उच्चारण में निहित है। उच्चारण के अर्थात् वाणी के चार भेद हैं–परा, पश्यन्ती, मध्यमा, और वैखरी।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
श्रीकृष्ण-चरित्र का अध्ययन करते हुए मुझे तीव्रता से प्रतीत हुआ कि उपनिषद् काल से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता आया, सूर्य-किरणों के समान शाश्वत सत्य–‘न हि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं किंचित्–’ जिसे श्रीकृष्ण ने सभी आयामों से जान लिया, उसे श्रीकृष्ण के पूर्व इस देश में किसी ने नहीं जाना। विचार के इस धागे के साथ चलते-चलते एक महत्त्वपूर्ण बात मेरे ध्यान में आयी। श्रीकृष्ण-चरित्र में केवल गीता को हमने वैश्विक तत्त्वज्ञान के अत्युच्च आविष्कार के रूप में स्वीकार किया। पीढ़ियों से हम उसे बिना समझे केवल रटते रहे। नि:सन्देह गीता तत्त्वज्ञान का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार है। इसमें किसी का मतभेद नहीं हो सकता–मेरा तो है नहीं। किन्तु पूर्ण अध्ययन के बाद मैं समझ-बूझ के साथ विधान कर रहा हूँ कि ‘उसके प्रत्येक चरण-चिह्न के साथ जो अनुभव-गीता अंकित होती गयी, उसकी हमने उपेक्षा की! वह भी उसी की भरतभूमि में जन्म लेकर!
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
श्रीकृष्ण, भीष्म और कर्ण पंचमहाभूतों में से महत्त्वपूर्ण जलतत्त्व की व्यक्तिरेखाएँ हैं। मूलत: ये तीनों ‘जलपुरुष’ हैं।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
अर्थात् सामर्थ्य, ‘श्री’ अर्थात् सौन्दर्य। ‘श्री’ का अर्थ है अनगिनत सम्पत्ति, अमोघ बुद्धि, अशरण बुद्धि। ‘श्री’ के कई अर्थ हैं–असीम यश भी उसका एक अर्थ है। अनेकानेक सद्गुणों की असीम यशदायी सम्पत्ति क्या आपको इस यौवन-सम्पन्न वसुदेव-पुत्र कृष्ण में समायी हुई नहीं दिखाई दे रही है? मुझे तो वह स्पष्ट दिख रही है।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
श्री’ अर्थात् सामर्थ्य, ‘श्री’ अर्थात् सौन्दर्य। ‘श्री’ का अर्थ है अनगिनत सम्पत्ति, अमोघ बुद्धि, अशरण बुद्धि। ‘श्री’ के कई अर्थ हैं–असीम यश भी उसका एक अर्थ है। अनेकानेक सद्गुणों की असीम यशदायी सम्पत्ति क्या आपको इस यौवन-सम्पन्न वसुदेव-पुत्र कृष्ण में समायी हुई नहीं दिखाई दे रही है? मुझे तो वह स्पष्ट दिख रही है।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
आध्यात्मिक साक्षात्कार के ज्ञान का अहंकार सबसे घातक होता है। फल-भार से झुके आम्र-वृक्ष की भाँति साक्षात्कारी ज्ञानी को सदैव नम्र रहना चाहिए। ऐसा होने पर ज्ञान के स्वर्ण में सत्य की सुगन्ध आती है।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
ध्यान में रख, वृद्धि और विकास ही जीवन के लक्षण हैं! जीवन-गंगा के विकास की इस बाधा को जड़ से उखाड़ दे।...
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
ध्यान में रख, वृद्धि और विकास ही जीवन के लक्षण हैं! जीवन-गंगा के विकास की इस बाधा को जड़ से उखाड़ दे।...इस समय रिश्ते-नातों पर ध्यान मत दे।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
वेदों के दूसरे अंग का नाम है छन्द।” आचार्यश्री बोलने लगे–“छन्द अर्थात् संगीत के स्वर, ताल और लय का शास्त्र-शुद्ध ज्ञान।” अब वे अपने विवेचन में रँग गये थे–“भाषा के निर्दोष आकलन के नियम जिसमें हैं, वह तीसरा अंग है ‘व्याकरण’।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
अब रहीं चार विद्याएँ, उनके नाम हैं–मीमांसा, तर्क, पुराण और धर्म। मीमांसा का अर्थ है किसी विषय को सभी उचित, अनुचित अंगों सहित स्पष्ट करना, उसकी गहराई तक पहुँचना, उसका सर्वांगीण विश्लेषण करना। मीमांसा के दो भेद हैं–पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। और जिसमें न्याय-अन्याय की चर्चा की गयी है, वह है तर्कविद्या।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])
“
धर्म क्या है? ‘धृ-धारयति इति धर्म:।’ जीव के पूर्ण विकास के लिए जो उसे धारण करता है–उसकी धारणा बनाता है–वही धर्म है।
”
”
Shivaji Sawant (युगंधर [Yugandhar])