Nirmal Verma Quotes

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कुछ लोग सुखी नहीं होते, लेकिन उनमें कुछ ऐसा होता है, जिसे देखकर हम अपने को बहुत छोटा-सा महसूस करते हैं। वे किसी दूसरे ग्रह के जीव जान पड़ते हैं…
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
Happiness always takes us by surprise, or perhaps it is not happiness. It is one’s unhappiness diminished in size.
Nirmal Verma (Days of Longing)
It was like an invisible fire that we could feel, that had been trying to pierce through our mutual darkness. It struck me that each of us is a darkness for the other. Three days or three years don’t make a difference unless we can catch hold of a burning moment in the darkness, knowing full well that it won’t last and after it is extinguished we will slide back into our own chilling solitude.
Nirmal Verma (Days of Longing)
कैसी विचित्र बात है, सुखी दिनों में हमें अनिष्ट की छाया सबसे साफ़ दिखाई देती है, जैसे हमें विश्वास न हो कि हम सुख के लिए बने हैं। हम उसे छूते हुए भी डरते हैं कि कहीं हमारे स्पर्श से वह मैला न हो जाए और इस डर से उसे भी खो देते हैं, जो विधाता ने हमारे हिस्से के लिए रखा था। दुख से बचना मुश्किल है, पर सुख को खो देना कितना आसान है—यह मैंने उन दिनों जाना था।
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
पुराने दोस्तों के चेहरे खुद हमें अपने होने के खँडहरों की याद दिलाते हैं…चेहरे की झुर्रियाँ, सफ़ेद होते बाल, माथे पर खिंची त्योरियों के गली-कूचे…जिनके चौराहों पर हम उन्हें नहीं, खुद अपनी गुज़री हुई ज़िन्दगी के प्रेतों से मुलाक़ात कर लेते हैं…
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
क्या कोई अपने तन की त्वचा और मन की मैल से बाहर आ सकता है? कहीं भी जाओ, ये दोनों चीज़ें पीछा नहीं छोड़तीं।
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
बीते हुए सुखों की तुलना में कभी न आनेवाले सुख हमेशा स्वच्छ और चमकीले दिखाई देते हैं। उन पर समय की धूल नहीं गिरती। वे कभी मैले नहीं पड़ते।
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
जिन स्थानों में हम रहते हैं, अगर वे न रहें…तो उनमें रहनेवाले प्राणी, वह तुम्हारे माँ-बाप ही क्यों न हों…बेगाने हो जाते हैं…जैसे उनकी पहचान भी कहीं ईंटों के मलबे में दब जाती हो…
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
कोई यातना को इतनी ग्रेस के साथ बरदाश्त कर सकता है, तो कोई चीज़ इस पीड़ा से कहीं ऊँची है,
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
पुराने नौकरों का अपने मालिकों पर वैसा ही अधिकार होता है, जैसा माँ का अपने बच्चे पर…
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
सुनो, जिसे हम पीड़ा कहते हैं, उसका जीने या मरने से कोई सम्बन्ध नहीं। उसका धागा प्रेम से जुड़ा होता है, वह खिंचता है, तो दर्द की लहर उठती है, ‘अगर तुम मुझे चाहते हो’, उसने कहा था। मुझे लगता है, उसका विश्वास ईश्वर में नहीं, मुझमें था
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
कैसी विचित्र बात है, सुखी दिनों में हमें अनिष्ट की छाया सबसे साफ़ दिखाई देती है, जैसे हमें विश्वास न हो कि हम सुख के लिए बने हैं। हम उसे छूते हुए भी डरते हैं कि कहीं हमारे स्पर्श से वह मैला न हो जाए और इस डर से उसे भी खो देते हैं, जो विधाता ने हमारे हिस्से के लिए रखा था। दुख से बचना मुश्किल है, पर सुख को खो देना कितना आसान है
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
जब कभी मेरा मन भटका होता था, तो मैं पगडंडी का सहारा पकड़कर ऊपर चढ़ता जाता था। दोनों तरफ़ बाँज के पेड़, बीच टुकड़ों में चलता आकाश, उखड़ी हुई साँसों के बीच कुछ देर के लिए अपने को भूल जाता। पसीने में लथपथ, हाँफती देह के भीतर मन ठहर जाता है। शान्त। भीतर की घड़ी चलना बन्द हो जाती थी। दिल की धड़कन कहीं दूर से आती सुनाई देती थी। यह भी भूल गया कि कौन-सी फाँस मन को टीस रही थी। सिर्फ़ लहू का शोर धमनियों में सुनाई देता रहा…। जंगल के भीतर शोर-जैसा, जिसे केवल उसके भीतर रहकर ही सुना जा सकता है। दुनिया के शोर से परे, अपनी रौ में बहता हुआ। अपने शहर में था, तो वह सुनाई भी नहीं देता था, सिर्फ़ मन का लट्‌टू घूमता था, दिन-रात, रात-दिन, उसकी घुर्र-घुर्र गुर्राहट तले सब आवाज़ें पिस जाती थीं, चूरा बन जाती थीं।
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
सत्तर बरस के ढाँचे में कितना कुछ सूख गया है, बदल गया है, बह गया है…यह मैं आपको बता सकता हूँ? शायद बता सकता, यदि उन्हें कोई बीमारी होती, कोई बुखार, किसी तरह का दुख-दर्द, कोई टीस, कोई ट्‌यूमर…तब उनमें से किसी को पकड़कर उनके भीतर झाँक सकता था…कौन-सी जगह है, जहाँ रोड़ा अटक गया है, कैसे उसे निकाला जा सकता है…लेकिन अगर ऐसा कुछ न हो, सबकुछ शान्त और समतल हो…तब कोई दरवाज़ा नहीं, जिसे खोलकर आप उनके भीतर प्रवेश कर सकें…क्या आप सोचते हैं कि एक्स-रे की तसवीरें देह के भेदों को भेद सकती हैं? नहीं जी, यह सबसे बड़ा इल्यूज़न है…आपको लगता है, सबकुछ नॉर्मल है, और यह सबसे बड़ी छलना है…क्योंकि सच बात यह है…कि नॉर्मल कुछ भी नहीं होता…पैदा होने के बाद के क्षण से ही मनुष्य उस अवस्था से दूर होता जाता है, जिसे हम ‘नॉर्मल’ कहते हैं…नॉर्मल होना देह की आकांक्षा है, असलियत नहीं। देह का अन्तिम सन्देश सिर्फ़ मृत्यु के सामने खुलता है, जिसे वह बिल्ली की तरह जबड़ों में दबाकर शून्य में अन्तर्ध्यान हो जाती है…जैसे एलिस के सामने चैशायर बिल्ली ग़ायब हो जाती थी—सिर्फ़ उसकी मुस्कराहट दिखाई देती रहती है…
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
असली दया का पात्र वह नहीं जो अज्ञानी है, बल्कि वह जो सब कुछ जानता है और फिर भी अपने पैर पीछे नहीं मोड़ सकता, कोई उसका हाथ पकड़कर उसे अपनी होनी से नहीं बचा सकता।
Nirmal Verma (रात का रिपोर्टर)
कुछ लोग शायद ऐसे ही होते हैं…उन्हें देखकर अपना किया—गुज़रा सबकुछ बंजर-सा जान पड़ता है।
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
देवदार की समाधिलीन शाखें, बाँज की छतनार तले झूलती रस्सी का झूला, झाड़ियों की फेंस, जिसके पार पूरी घाटी फैली थी। कुछ भी सुनाई नहीं देता था…सबकुछ निस्तब्ध। रात की नीरवता को तोड़ती दूर कहीं कुत्तों की चीखें ही सुनाई दे जाती थीं।
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
कौन-सी जगह है, जहाँ रोड़ा अटक गया है, कैसे उसे निकाला जा सकता है…लेकिन अगर ऐसा कुछ न हो, सबकुछ शान्त और समतल हो…तब कोई दरवाज़ा नहीं, जिसे खोलकर आप उनके भीतर प्रवेश कर सकें…
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
डर तो तब लगता है, जब माँ के पेट से हम एक रूप में निकलते हैं और धरती माता पर पैर रखते ही दूसरा रूप धारण कर लेते हैं…बरसों बाद हमें याद भी नहीं रहता कि पैदा होने पर हम कैसे लगते थे…और अब कैसे बन गए हैं?
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
एक आँख खुली थी, मुँह के कोर से थूक की एक लाइन ठुड्‌डी तक बह आई थी…एक गहरी, घनघोर आवाज़ उनके गले में से निकल रही थी, जैसे उनके भीतर के जंगल में कोई घायल पशु क्रन्दन कर रहा हो…
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)
जैसे पहाड़ी लोग प्रकृति में होनेवाले परिवर्तन—आँधी, हवा, बर्फ़ और बारिश—को स्वीकार कर लेते हैं। उसकी आँखों में यह बीमारी नहीं, देह में होनेवाला आलोड़न था, जो अपनी लय और गति पर चलता है—उसे देखकर शोक या आश्चर्य भला किसलिए?
Nirmal Verma (अन्तिम अरण्य)