Muktibodh Quotes

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विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चांद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी में विचार आते हैं लिखते समय नहीं ...पत्थर ढोते वक़्त पीठ पर उठाते वक़्त बोझ साँप मारते समय पिछवाड़े बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त पत्थर पहाड़ बन जाते हैं नक्शे बनते हैं भौगोलिक पीठ कच्छप बन जाती है समय पृथ्वी बन जाता है...
Gajanan Madhav Muktibodh
मैं उनका ही होता, जिनसे मैंने रूप-भाव पाए हैं। वे मेरे ही लिए बँधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कविताएँ)
लकड़ी का रावण दीखता त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से अनाम, अरूप और अनाकार असीम एक कुहरा, भस्मीला अन्धकार फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर; लटकती हैं मटमैली ऊँची-ऊँची लहरें मैदानों पर सभी ओर लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर ऊपर उठ पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक मुक्त और समुत्तुंग !! उस शैल-शिखर पर खड़ा हुआ दीखता है एक द्यौ : पिता भव्य निःसंग ध्यान-मग्न ब्रह्म मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित् ! मेरे इन अनाकार कन्धों पर विराजमान खड़ा है सुनील शून्य रवि-चन्द्र-तारा-द्युति-मण्डलों के परे तक । दोनों हम अर्थात् मैं व शून्य देख रहे...दूर...दूर...दूर तक फैला हुआ मटमैली जड़ीभूत परतों का लहरीला कम्बल ओर-छोर-हीन रहा ढाँक कन्दरा-गुहाओं को, तालों को वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को अकस्मात् दोनों हम मैं वह शून्य देखते कि कम्बल की कुहरीली लहरें हिल रहीं , मुड़ रहीं !! क्या यह सच, कम्बल के भीतर है कोई जो करवट बदलता-सा लग रहा ? आन्दोलन ? नहीं- नहीं , मेरी ही आँखों का भ्रम है फिर भी उस आर-पार फैले हुए कुहरे में लहरीला असंयम !! हाय ! हाय ! क्या है यह !! मेरी ही गहरी उसाँस में कौन-सा है नया भाव ? क्रमशः कुहरे की लहरीली सलवटें मुड़ रहीं , जुड़ रहीं , आपस में गुँथ रहीं !! क्या है यह !! यर क्या मज़ाक है, अरूप अनाम इस कुहरे की लहरों से अगनित कई आकृति-रूप बन रहे, बनते-से दीखते !! कुहरीले भाप-भरे चहरे अशंक, असंख्य व उग्र... अजीब है, अजीबोग़रीब है घटना का मोड़ यह । अचानक भीतर के अपने से गिरा कुछ, खसा कुछ, नसें ढीली पड़ रही कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा आतंकित हम सब अभी तक समुत्तुंग शिखरों पर रहकर सुरक्षित हम थे जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे, अहं-हुंकृति के ही...यम-नियम थे, अब क्या हुआ यह दुःसह !! सामने हमारे घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे लगते हैं घोरतर । जी नहीं, वे सिर्फ़ कुहरा ही नहीं है, काले-काले पत्थर व काले-काले लोहे के लगते वे लोग । हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या भरमाया मेरा मन, उनके वे स्थूल हाथ मनमाने बलशाली लगते हैं ख़तरनाक; जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे । डरता हूँ, उनमें से कोई, हाय सहसा न चढ़ जाय उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर, पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा ! बढ़ न जायँ छा न जायँ मेरी इस अद्वितीय सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ, हमला न कर बैठे ख़तरनाक कुहरे के जनतन्त्री वानर ये, नर ये !! समुदाय, भीड़ डार्क मासेज़ ये मॉब हैं, हलचलें गड़बड़, नीचे थे तब तक फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर, पार थे; कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे । अब यह लंगूर हैं हाय हाय शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ !! आसमानी शमशीरों, बिजलियों, मेरी इन भुजाओं में बन जाओ ब्रह्म-शक्ति ! पुच्छल ताराओं, टूट पड़ो बरसो कुहरे के रंग वाले वानरों के चहरे विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं... प्रहार करो उन पर, कर डालो संहार !! अरे, अरे ! नभचुम्बी शिखरों पर हमारे बढ़ते ही जा रहे जा रहे चढ़ते हाय, हाय, सब ओर से घिरा हूँ । सब तरफ़ अकेला, शिखर पर खड़ा हूँ । लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव सा । परन्तु, यह क्या आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !! स्वयं को ही लगता हूँ बाँस के व कागज़ के पुट्ठे के बने हुए महाकाय रावण-सा हास्यप्रद भयंकर !! हाय, हाय, उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय और कि भाग नहीं पाता मैं हिल नहीं पाता हूँ मैं मन्त्र-कीलित-सा, भूमि में गड़ा-सा, जड़ खड़ा हूँ अब गिरा, तब गिरा इसी पल कि उस पल... (गजानन माधव मुक्तिबोध)
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कविताएँ)
कन्हैया ग़रीबी को, उसकी विद्रूपता को, और उसकी पशु-तुल्य नग्नता को जानता है। साथ ही उसके धर्म और दर्शन को भी जानता है। गाँधीवादी दर्शन ग़रीबों के लिए बड़े काम का है। वैराग्य भाव, अनासक्ति और कर्मयोग सचमुच एक लौह-कवच है, जिसको धारण करके मनुष्य आधा नंगापन और आधा भूखापन सह सकता है। सिर्फ़ सहने की ही बात नहीं, वह उसके आधार पर आत्मगौरव, आत्मनियंत्रण और आत्मदृढ़ता का वरदान पा सकता है। और, भयानक प्रसंगों और परिस्थितियों का निर्लिप्त भाव से सामना कर सकता है। मृत्यु उसके लिए केवल एक विशेष अनुभव है। ग़रीबी एक अनुभवात्मक जीवन है। कठोर से कठोर यथार्थ चारों तरफ़ से घेरे हुए है, एक विराट् नकार, एक विराट् शून्य-सा छाया हुआ है। लेकिन, इस शून्य के जबड़े में मांसाशी दाँत और रक्तपायी जीभ है! कन्हैया इसे जानता है!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
नौजवानी में वे दुखान्त नाटक सुखान्त नाटक में भी बदल जाते। लेकिन, ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती गई, भावना कम होती गई और अहंकार की बाढ़ आती गई, त्यों-त्यों परस्पर आकर्षण के अभाव में एक-दूसरे के प्रति कठोरता उत्पन्न होती गई। माता
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
उत्तेजनापूर्ण और असंयत जीवन से उसका चेहरा बिगड़ गया, आकृति बिगड़ गई, और वह इस बिगाड़ को अच्छा समझने लगा। दाढ़ी बढ़ा ली, जैसे कोई बैरागी हो, शरीर दुर्बल हो गया। और यदि कोई व्यक्ति उसके इस विद्रूप व्यक्तित्व के विरुद्ध मज़ाक़ करता या आलोचना करता तो वह उसका शत्रु हो जाता।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
उसने न मालूम कितने ही दर्शनों और विचारधाराओं, व्यक्तियों और व्यक्तित्वों में दोष निकाले। उन दोषों को वह इतनी कड़वाहट के साथ कहता मानो उसकी कोई निजी हानि हुई हो। वह बात इस तरह करता मानो उन चीज़ों का उससे कोई आत्मीय रहस्यमय सम्बन्ध हो। निषेध, निषेध, निषेध!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
अनुशासन हमारे लिए, जो छोटे हैं और निर्बल हैं, जिन्हें दम घोंटकर मारा जाता है और जिनसे काम करवाया जाता
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
हृदय-रोग हो गया है–गुस्से का, क्षोभ का, खीझ का और अविवेकपूर्ण कुछ भी कर डालने की राक्षसी क्षमता का।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
उसने कहा, ‘क्लॉड ईथरली वह अमरीकी विमान चालक है, जिसने हिरोशिमा पर बम गिराया था।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
हर बार छोड़ दिया गया। उसने घोषित किया कि वह पापी है, पापी है, उस दंड मिलना चाहिए, उसने निरपराध जनों की हत्या की है, उसे दंड दो। हे ईश्वर! लेकिन, अमरीकी व्यवस्था उसे पाप नहीं, महान कार्य मानती थी। देश-भक्ति मानती थी। जब उसने ईथरली की ये हरकतें देखीं तो उसे पागलख़ाने में डाल दिया। टेक्सॉस प्रान्त में वाको नाम की एक जगह है–वहाँ उसका दिमाग़ दुरुस्त नहीं हो सका।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलख़ाना है, जहाँ हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे ख़ुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएँ, यानी दुरुस्त हो जाएँ या उसी पागलख़ाने में पड़े रहें!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्मा आ गई है, चेतन में स्व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्य का आदर्श–भले ही वह बुरा समाज क्यों न हो! यही आज के जीवन-विवेक का रहस्य है।...
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
गहन साहचर्य के सम्बन्ध-सूत्र तड़प रहे हैं और महसूस किए जा रहे हैं।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
अब तो मैं केवल आश्रय का अभिलाषी हूँ, ऊष्मापूर्ण आश्रय का...
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
यौवन के मोह-स्वप्न का गहरा उद्दाम आत्मविश्वास अब मुझमें नहीं हो सकता। एक वयस्क पुरुष का अविवाहिता वयस्का स्त्री से प्रेम भी अजीब होता है। उसमें उद्बुद्ध इच्छा से आग्रह के साथ-साथ जो अनुभवपूर्ण ज्ञान का प्रकाश होता है, वह पल-पल पर शंका और सन्देह को उत्पन्न करता है। श्यामला के बारे में शंका रहती है। वह ठोस बातों की बारीकियों का बड़ा आदर करती है। वह व्यवहार की कसौटी पर मनुष्य को परखती है। यह मुझे अखरता है। उसमें मुझे एक ठंडा पथरीलापन मालूम होता है। गीले-सपनीले रंगों का श्यामला में सचमुच अभाव है।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
उतरे हुए चेहरों को देखा है। बावज़ूद श्रेष्ठ पोशाक और ‘अपटूडेट’ भेस के, सँवलाया हुआ गर्व, बेबस गम्भीरता, अधीर उदासी और थकान उनके व्यक्तित्व पर राख-सी मलती
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
श्यामला का पार्श्व-संगीत चल ही रहा है, मैं
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
उस दृश्य में इतनी ठंडक और ताज़गी थी कि दिल की मनहूसियत हवा हो गई और एक अजीब-सी थिरकन नाचने के अन्दाज़ में उभर उठी। और फिर भी वह गम्भीर ही रहा।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
जोकर अपनी भावनाएँ व्यक्त कर सकता है। चपत जड़ सकता है। एक दूसरे को लात मार सकता है, और, फिर भी, कोई दुर्भावना नहीं। वह हँस सकता है, हँसा सकता है। उसके हृदय में इतनी सामर्थ्य है।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
चले गए वे दिन जब वह किसी का मित्र तो किसी का पुत्र था। पेट भूखा ही क्यों न सही, आँखें तो सुन्दर दृश्य देख सकती थीं। और वह सुनहली धूप! आहा! कैसी ख़ूबसूरत! उतनी ही मनोहर जितनी सुशीला की त्वचा!!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
भरी दोपहरी में श्यामला के साथ पल-भर उस पेड़ के तले बैठने को मेरी भी तबीयत हुई। बहुत ही छोटी और भोली इच्छा है यह!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
ठाठ से रहने के चक्कर से बँधे हुए बुराई के चक्कर तोड़े जा सकते हैं। प्राणशक्ति शेष है, शेष!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
उनके झरनों ने उसकी ज़िन्दगी को एक नदी बना दिया।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
उसमें का चिकित्सक एक ऐसा सीधा-साधा हकीम था, जो दुनिया की पेटेंट दवाइयों के चक्कर में न पड़कर अपने मरीज़ों से रोज़ सुबह उठने, व्यायाम करने, दिमाग़ को ठंडा रखने और उसकी दो पैसे की दो पुड़िया शहद के साथ चाट लेने की सलाह देता था। सहानुभूति की एक किरण, एक सहज स्वास्थ्यपूर्ण निर्विकार मुसकान का चिकित्सा-सम्बन्धी महत्त्व, सहानुभूति के लिए प्यासी, लँगड़ी दुनिया के लिए कितना हो सकता है–यह वह जानता था! इसलिए वह मतभेद और परस्पर पैदा होनेवाली विशिष्ट विसंवादी कटुताओं को बचाकर निकल जाता था।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
सब लोगों का प्यार वह अपने में नहीं सँभाल सकता। उसका दिल मिट्टी का घड़ा है, उसमें ज़्यादा भरोगे तो वह टूट जाएगा।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
भोले-भाले आदिवासियों की उस कुल्हाड़ीजैसा है जो जंगल में अपने बेईमान और बेवफ़ा साथी का सिर धड़ से अलग कर देती है। बारीक बेईमानियों का सूफ़ियाना अन्दाज़ उसमें कहाँ!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
एकान्त में प्रत्यावर्तित और पुन: प्रत्यावर्तित प्रकाश के कोमल वातावरण में मूल-रश्मियों और उनके उद्गम-स्रोतों पर सोचते रहना, ख़यालों की लहरों में बहते रहना कितना सरल, सुन्दर और भद्रता-पूर्ण है। उससे न कभी गरमी लगती है, न पसीना आता है, न कभी कपड़े मैले होते हैं। किन्तु प्रकाश के उद्गम के सामने रहना, उसका सामना करना, उसकी चिलचिलाती दोपहर में रास्ता नापते रहना और धूल फाँकते रहना कितना त्रासदायक है!
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
सजे हुए टेबल पर रखे कीमती फाउंटेन पेन-जैसे नीरव-शब्दांकनवादी हमारे व्यक्तित्च, जो बहुत बड़े ही खुशनुमा मालूम होते हैं–किन्हीं महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के कारण–जब वे आँगन में और घर-बाहर चलती हुई झाड़ू–जैसे काम करनेवाले दिखाई दें,
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
आज की निगाह से क्या मतलब?’ उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखें डालकर उसने कहना शुरू किया, ‘जो आदमी आत्मा की आवाज़ कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्मा की आवाज़ जो लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवक़ूफ है। जो उसकी आवाज़ बहुत ज़्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्त्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज़ ज़रूरत से ज़्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने ज़माने में सन्त हो सकता था।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
तालाब, आसमान का लम्बा-चौड़ा आईना, जो थरथराते हुए मुसकराता है। और उसकी थरथराहट पर किरने नाचती रहती हैं। मेरे कमरे में जो प्रकाश आता है, वह इन लहरों पर नाचती हुई किरनों का उछलकर आया हुआ प्रकाश है।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
काश, ऐसी भी कोई मशीन होती जो दूसरों के हृदय-कम्पनों को, उनकी मानसिक हलचलों को, मेरे मन के परदे पर, चित्र रूप में, उपस्थित कर सकती। उदाहरणत:, मेरे सामने इसी पलंग पर, वह जो नारी-मूर्ति बैठी है। उसके व्यक्तित्व के रहस्य को मैं जानना चाहता हूँ, वैसे, उसके बारे में जितनी गहरी जानकारी मुझे है, शायद और किसी को नहीं।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
अपने इंस्टिक्ट के खुले खेल के लिए असभ्य और बर्बर वृत्ति के सामर्थ्य और शक्ति के प्रति खिंचाव रहना, मैं तो एक ढंग का परवर्शन ही मानता हूँ।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
इसमें कोई शक नहीं कि जोकर का काम करना एक परवर्शन (अस्वाभाविक प्रवृत्ति) है! मनुष्य की सारी सभ्यता के पूरे ढाँचे चरमराकर नीचे गिर पड़ते हैं, चूर-चूर हो जाते हैं। लेकिन असभ्यता इतनी बुरी चीज़ नहीं, जितना आप समझते हैं। उसमें इंस्टिक्ट का, प्रवृत्ति का खुला खेल है, आँख मिचौनी नहीं।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
लक्ष्य आँखों ही आँखों में आँसू सोख लेने का था,
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
शरीर के अस्वास्थ्यजनित विषों ने उसकी नस-नस में घुसकर उसे कमज़ोर और विक्षुब्ध कर दिया था।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
शरीर के अस्वास्थ्यजनित विषों ने उसकी नस-नस में घुसकर उसे कमज़ोर और विक्षुब्ध कर दिया था। और उस विक्षोभ ने उसके मन में आत्मनाशक सपने और भाव तैरा दिए थे। यही वे घटनाएँ थीं, जो पकड़ में आती नहीं थीं, जो सिर्फ़ एक मानसिक वातावरण बनकर उसे खाए जा रही थीं। किन्तु
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
भूख हमारे चरित्र-विनाश का सबसे बड़ा सबूत।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
लिपा-पुता और अगरुगन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार-दृश्य देखते, खिड़की के पास देव-पूजा में संलग्न-मन, मुँदी आँखोंवाले ऋषि-मनीषी कश्मीर की क़ीमती शाल ओढ़े ध्यानस्थ बैठे।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट निश्छल ज्योति! अपने चेहरे पर गुरु की गड़ी हुई दृष्टि से किंचित् विचलित होकर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुद्धिवाला मस्तक और नीचा कर लिया। गुरु का हृदय पिघला। उन्होंने दिल दहलानेवाली आवाज़ से, जो काफ़ी धीमी थी, कहा, ‘देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, शास्त्र, पुराण, गणित, आयुर्वेद, साहित्य, संगीत आदि-आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जाएगा। केवल भवन त्यागकर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
जब गुरु उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मंदाक्रांता या शार्दूलविक्रीड़ित गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वह वीरान, निर्जन शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का लाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं। ‘शिष्य, आओ, मुझे विदा दो।
Gajanan Madhav Muktibodh (प्रतिनिधि कहानियां : मुक्तिबोध)
मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती. मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती.
Gajanan Madhav Muktibodh
अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते...!
Gajanan Madhav Muktibodh
दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है.
Gajanan Madhav Muktibodh
फिर वही यात्रा सुदूर की, फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की, कि वही आत्मचेतस् अंतःसंभावना…जाने किन ख़तरों में जूझे ज़िंदगी...!
Gajanan Madhav Muktibodh