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मन की बात"
मेरे कमरे के बाएं तरफ़ के किनारे का वो कोना जहाँ अक्सर बैठता हूँ, खुला आसमान आसपास खड़ी दो बड़ी सी ईमारतों के बीच से साफ़ दिखता है अकेली सी अँधेरे रात अपने यौवन पर होती है और मेरी आँखें टकटकी लगाये खिड़की से झांकती रहती हैं उस वक़्त जब मैं बिलकुल अकेला होता हूँ एक दम शून्य सा ख़ामोश बैठा अपनी ख़ामोशी से घिरे बैठे मेरे ज़हन में लाखों सवाल उठते हैं। इन सवालों की उधेड़ बुन मुझे अक्सर सोने नहीं देती।
TV और समाचार पत्रों की माने तो इस वक़्त हिंदुस्तान का हर दूसरा आदमी हिन्दू, मुस्लिम CAA और NRC के विरोध में उलझा है।
और तब मैं दिल और दिमाग़ के बीच उलझा अपने जीवन को सही दिशा निर्देश देने में सम्पूर्ण लीन हूँ। मेरे पड़ोस में रहने वाली सब्बन मियां की माँ जिन्हें मैं खाला(मौसी) कहता हूँ उनका प्यार अब भी मेरे प्रति कम नहीं हुआ उनके हाथ की बनी सेबईयों के स्वाद की मिठास अब भी कम न हुयी और घर के पड़ोस में खेलते बच्चों के झुण्ड को देखकर अब भी कोई नहीं बता सकता है कि इसमें राजू और राकेश का लौंडा कौन सा है या सक़ील सब्बन का कौन सा है। पर हमारे देश के समाचार पत्रों में पढ़कर लगता है कि हर तरफ़ हिंसा की आग लगी फ़ैल रही है न जाने कौन सा वो पल होगा जो हमें तुम्हेँ जलाकर राख़ कर देगा।
ख़ैर.... मेरे दिल और दिमाग़ में जो कोहराम इस वक़्त मचा है वो इन सब बातों ने नहीं मचाया।
दरअसल मैं बदलते दौर के बदलते रिश्तों और इंसानी जज़्बातों के बीच ठहरी गहरी ख़ामोश को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। वो गहरी ख़ामोशी जो न चाहते हुए भी हर शख़्स के जीवन का हिस्सा है।
जब चल रही है दुनिया झूठे अफसानों पर।
जब मिट रहे हैं रिश्ते उँगलियों के इशारे पर।
ये नादाँ था दिल लगा बैठा, और मिट गया।
उनकी हर दिन कि दिमाग़ी चालों पर।।
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Shrikant Pandey ― लफ़्ज़ों से परे...